TIME AND SPACE

टाइम और स्पेस की कहानियाँ आपने सब ने खूब सुनी होंगी। आज चलिए मैं आपको एक नए दृष्टिकोण से इसकी परिभाषा समझाता हूँ। विज्ञानं और फिलोसफी का बड़ा गहरा सम्बन्ध है। किंतु विज्ञानं कहीं न कहीं मात खा जाता है। विज्ञानं लाख कोशिश कर ले किंतु इस मायावी जगत में हजारों ऐसी चीजें हैं जिनका वो सिर्फ़ प्रमाण दे सकता है जिनका भौतिक रूप दिखाने में वो असफल है। ऊर्जा, करेंट,हवा, प्राण,एटम, इत्यादि हजारों ऐसी चीजें हैं जहाँ पर विज्ञानं केवल प्रमाण दे सकता है। इसी क्रम में आइंस्टीन ने टाइम को एक विमा बताया यानि टाइम भी हर आदमी का अलग अलग होता है और इसे हम छोटा बड़ा कर सकते हैं।जैसे सुख का समय तुंरत कट जाता है और दुःख का समय देर से कटता है.समय वही लेकिन दो आदमियों के लिए अलग अलग . आइन्स्टीन ने इसे प्रयोगों के मध्यम से सिद्ध कर दिखाया था।अब बात आती है एक पूर्णतया नए विचार की अर्थात स्पेस की। जी हाँ स्पेस भी हर एक आदमी का अलग अलग होता। यही विचार धारा किसी मनीषी ने इस प्रकार दी थी की इस दुनिया में हजारों ब्रम्हांड हैं । बिल्कुल सत्य है.क्योंकि हर एक व्यक्ति अपने स्पेस से एक ब्रम्हांड की रचना कर रहा होता है। आप मेरी बात को दैनिक बातों से जोड़ सकते हैं कि हर आदमी का अपना एक नजरिया यानि नजर यानि एक दृष्टि क्षेत्र अर्थात एक स्पेस होता है.किंतु ये बात साइंस के नजरिये से भी उतनी ही सत्य है कि हर आदमी का अपना स्पेस अलग अलग होता है। इस स्पेस को वो छोटा बड़ा भी कर सकता है। आप जिंदगी भर इस दुनिया को मेरे स्पेस से नही देख सकते क्योंकि वो नजर पाने के लिए आपको राहुल की आँख चाहिए होगी और इसके लिए आपको राहुल बनाना पड़ेगा और आप अपने अस्तित्व खो कर मेरे स्पेस में आ जायेंगे। तब दुनिया को आप मेरे स्पेस से देखेंगे । वस्तुतः दुनिया एक है ऑंखें अनेक हैं। जो करोड़ों ऑंखें उसी एक स्पेस को देख कर करोड़ों ब्रम्हांड की रचना कर रही हैं। आँखों से तात्पर्य सिर्फ़ जैविक आँखों से ही नही है बल्कि उससे जुड़े मस्तिष्क और उसकी मष्तिष्क में होने वाले विश्लेषण से भी है। हर एक घटना के पीछे प्रत्येक आदमी का एक विश्लेषण होता है यानि वो उसी एक घटना को अपने ब्रम्हांड से देख कर विश्लेषित करता है। इसी परिदृश्य में थोड़ा और आगे चलते हैं मस्तिष्क का विश्लेषण किन किन चीजों पर निर्भर करता है। नयूरोंस की गतिविधियों पर दिमाग चलता है। मैं अपने सुधी पाठकों से निवेदन करना चाहूँगा की मेरे लेख जैविक आधार पर न पढ़ें यथा यदि मैं आंख की बात करता हूँ तो सिर्फ़ जैविक आँख की बात नही है बल्कि जैविक आँख से होनेवाली परलौकिक गतिविधियों की मैं बात कर रहा हूँ। मेरे लेखों का मुख्य आधार इस सृष्टि के सञ्चालन को समझना है। यदि ये दुनिया जैविक या भौतिक आधार पर समझी जाती तो हम भी किसी मेचकनिकल डिवाइस की भांति काम कर रहे होते। किंतु हम हमारे विचार ,हमारी गतिविधियाँ अत्यधिक अनिश्चित हैं। या तो ये किसी पूर्व निश्चित स्क्रिप्ट को प्ले करने के लिए हमारा अवतरण हुआ है। या फिर ये दुनिया पूर्णतया अनिश्चित है। एक मानव नाम का प्राणी कभी तो अपनी माँ को भगवन मान कर पूजता है। तो कभी अपनी इसी माँ नाम की देवी की हत्या करने वाला मानव भी उत्पन्न हुआ। आख़िर इतना अन्तर एक ही संरचना वाले प्राणी में क्यों। दोनों के हाथ पैर आँख कान नाक सब एक जैसे होते हैं ,बदला होता है तो सिर्फ़ उनका स्पेस और उस स्पेस में होनेवाली घटनाओं का विश्लेषण करने वाला मस्तिष्क। इसी मष्तिष्क के विश्लेषण से वो हर परिस्थितियो में व्यवहार करता है। मष्तिस्क का परिचालन विचारों द्वारा होता है। विचार और प्राण इस ब्रम्हांड में सर्वत्र व्याप्त हैं। गुत्त्थी यहीं उलझ जाती है कि ये प्राण और विचार मानव शरीर में कब और कैसे आतें हैं । कुंडली नामक विद्या द्वारा यही सिद्ध होता है कि इस जीवन में हर चीज पूर्व निर्धारित है. यानी इस सृष्टि की स्क्रिप्ट पहले से लिख दी गई है. अब आध्यात्मिक लोगो की खोज इस जीवन रूपी प्ले की स्क्रिप्ट लिखने वाले राईटर की है । जो जीवन की हर एक गतिविधियों को निश्चित करके रख ता है। और यदि आप उसे पढ़ना चाहें तो कुंडली के माध्यम से पढ़ भी सकते हैं। कुडली की विधा फ़िर कभी......अभी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही प्रश्न है की विचार कहाँ से आते हैं। अपने प्रयोगों के दौरान मैंने देखा की मैंने अपने जीवन के भविष्य के बारे में जानने के बावजूद ग़लत निर्णय लिए और नियति ने वही किया जो लिखा हुआ था। पढने और सुनने में काफी बचकाना लग रहा है की कोई व्यक्ति जानते बुझते ग़लत निर्णय क्यों लेगा लेकिन ऐसा ही हुआ। जब भी आप किसी निर्णय पर पहुचते हैं आप अपनी नियति का निर्धरण उसी छंद कर लेते है । आप का भविष्य का मार्ग उसी चढ़ निर्धरित हो चुका होता है। कर्म इत्यादि तो सिर्फ़ उस मार्ग पर चलने का दिखावा होता है। निर्णय किसी विचार से निर्धारित होता है. किसी भी निर्णय की प्रोबबिलिटी सिर्फ़ एक होती है. अर्थात किसी भी निर्णय में आप या तो हाँ कहेंगे या ना कहेंगे. मुद्दा फ़िर उलझ जाता है की आप यदि हाँ कहते हैं तो हाँ ही क्यूँ और ना कहते हैं तो ना ही क्यूँ . जवाब फ़िर वही है की आपकी नियति . जी हाँ जो की पूर्व निर्धारित है अर्थात आपका हां या ना बोलना भी पूर्व निर्धारित होता है. ये आपको आपका अहंकार बताता है कि ये निर्णय आप ले रहे है जबकि सच्चाई ये है कि वो निर्णय आप से दिलवाया जाता है. अगर आप अपने हां या ना का जवाब बदल देंगे तो आप की पूरी नियति बदल जायेगी. जबकि आपकी नियति पूर्व निर्धारित है.जिंदगी को इस नजरिये से देख कर आजमाईये.

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